इस मदमस्त शाम के दरमियान,
तलाश है उस शुन्य की,
वही शुन्य जो गुमशुदा है,
कही नक़ाब पहने हुआ है,
बखत यह ढलती शाम उसी शून्य का मुख़्तसर है ।
अचानक से चलती हुई ये सर्द हवा
न महक है, न कोई खुशबू
गुज़रती है यूं मानो तुम यहीं हो,
क्या वजह है की हवा मैं कोई इतर नहीं,
कहाँ गयी फूलों और मिटटी की सुगंध ?
आदत सी है मुझे तुम्हारे इतर की,
जो इस हवा की तरह हमें
अपने होने का एहसास करता था,
तुम्हारे बिना अब हर खुशबू शुन्य है ।
तलाश है उस शुन्य की,
वही शुन्य जो गुमशुदा है,
कही नक़ाब पहने हुआ है,
बखत यह ढलती शाम उसी शून्य का मुख़्तसर है ।
अचानक से चलती हुई ये सर्द हवा
न महक है, न कोई खुशबू
गुज़रती है यूं मानो तुम यहीं हो,
क्या वजह है की हवा मैं कोई इतर नहीं,
कहाँ गयी फूलों और मिटटी की सुगंध ?
आदत सी है मुझे तुम्हारे इतर की,
जो इस हवा की तरह हमें
अपने होने का एहसास करता था,
तुम्हारे बिना अब हर खुशबू शुन्य है ।
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